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अपूर्व उस दिन अनेक प्रकार के बहाने बना-बनाकर न तो घर के अन्दर गया और न मां से भेंट की। किसी के यहां भोज का निमंत्रण था; वहीं खा आया। अपूर्व जैसा पढ़ा-लिखा और भावुक नवयुवक एक मामूली पढ़ी-लिखी लड़की के मुकाबले अपने छिपे हुए गौरव का बखान करने और उसे आन्तरिक महत्ता का पूर्ण परिचय देने के लिए क्यों इतना आतुर हो उठा; यह समझना बहुत कठिन है? एक निरी गांव की चंचल बाला ने उसे मामूली नवयुवक समझ ही लिया, तो क्या हो गया? और उसने पल भर के लिए अपूर्व का परिहास करके और फिर उसके अस्तित्व को किसी ताक पर रखकर, राखाल नाम के अबोध बच्चे के साथ खेलने के लिए इच्छा प्रकट की, तो उसमें अपूर्व का बिगड़ ही क्या गया? इन बच्चों के सामने उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता ही क्या है कि वह विश्वदीप मासिक पत्र में पुस्तकों की समालोचना लिखा करता है और उसने सूटकेस में एसन्स, जूते, रूबिनी के कैम्फर, पत्र लिखने के रंगीन कागज और हारमोनियम शिक्षा, पुस्तक के साथ एक पूरी लिखी हुई प्रेस कॉपी, यामिनी के गर्भ में भावी उषा की तरह, प्रज्वलित होने की राह देख रही है; पर मन को समझना कठिन है, कम-से-कम इस देहाती चंचल लड़की के सामने श्री अपूर्वकुमार बी.ए. हार मानने के लिए किसी प्रकार भी तैयार नहीं।
संध्या को अपूर्व जब घर के भीतर पहुंचा, तो उसकी मां ने पूछा- क्यों रे, लड़की देख आया? कैसी है, पसंद है न?
अपूर्व ने कुछ लजाते हुए उत्तर दिया- हां, देख तो आया मां, उनमें से मुझे एक ही लड़की पसन्द है।
मां ने तनिक कुछ आश्चर्यचकित स्वर में पूछा- तूने कितनी लड़कियाँ देखी थीं वहां?
अन्त में दो-चार प्रश्नोत्तर के बाद मां को मालूम हुआ कि उसके लड़के ने पड़ोसिन शारदा की लड़की मृगमयी पसंद की है। इतना पढ़-लिखकर भी यह पसंद।
परिणाम यह निकला कि कमबख्त अड़ियल टट्टू की तरह गर्दन टेढ़ी करके, कुछ पीछे को उठकर कह बैठी- मैं ब्याह नहीं करूंगी, जाओ।